देवशयनी एकादशी (आषाढी एकादशी) व्रत और कथा का महत्त्व – पुराणों और धर्म ग्रंथो के अनुसार ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस दिन से भगवान विष्णु चार मास (4 महीनो) की अवधि तक बलिद्वार पाताल लोक में निवास करते हैं
और कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रत्यागमन करते हैं। इसी कारण इसे हरिशयनी एकादशी अर्थात देवशयनी एकादशी तथा कार्तिक वाली एकादशी को ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के नाम से जाना जाता है।
आषाढ़ मास से कार्तिक मास तक के समय को ‘चातुर्मास’ कहते हैं।
इन चार महिनों में भगवान विष्णु क्षीर सागर की अनंत शैय्या पर शयन करते हैं। इसलिये कृषि के अलावा विवाह के सभी शुभ कार्य बंद रहते हैं। धार्मिक रूप से यह चार मास भगवान विष्णु का “निंद्राकाल” माना जाता है।
इन दिनों में तपस्वी (साधु) एक स्थान पर रहकर तप कार्य करते हैं। गुजरात, मध्यप्रदेश, यूपी में इसे आषाढ़ी एकादशी भी कहते हैं। इस दिन पुष्कर जाने का बहुत महत्त्व है।

देवशयनी एकादशी (आषाढी एकादशी) व्रत की कथा
देवशयनी एकादशी (आषाढी एकादशी) व्रत कथा – एक समय की बात है देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से एक एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की। तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया-सतयुग में मान्धाता नामक एक चक्रवती सम्राट राजा राज करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी।
किन्तु भविष्य में क्या हो जाए यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनजान थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भंयकर अकाल पड़ने वाला हैं। उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भंयकर अकाल पड़ा।
इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिण्डदान कथा-व्रत आदि सबमें कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहां रह जाती हैं? प्रजा ने राज के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौनसा पाप कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है ?
फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहां विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरान्त कुशल क्षेम पूछा।
फिर जंगल में विचरने तक अपने आश्रम में आने का प्रयोजन भी जानना चाहा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा-महात्मा मे सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हु फिर भी मैं अपने राज्य में अकाल जैसा दुर्लभ द्रश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है।
कृपया इसका समाधान करें। यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- हे राजन् ! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे पाप का भी बड़ा दंड मिलता है। इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है।
जबकि आपके राज्य में यह शुद्ध तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा। तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से संभव है
किन्तु राजा का हृदय एक निरपराध शुद्ध तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- हे देव ! मैं उस निरपराध को मार दूं। यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताए।
महर्षि अंगीरा ने बताया-आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करे। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी। इसके बाद राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया और व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।