(पुनर्जीवन) माँ और ममता की कहानी – जैसे ही अम्मा की रिपोर्ट आई, सब सकते में आ गए। अम्मा को कैंसर हो गया था। परिवार के सदस्यों के बीच हलचल मच गई। कोई उन्हें दिल्ली ले जाने को कहने लगा तो कोई चंडीगढ़।
कोई उनकी अधूरी पड़ी इच्छाओं की पूर्ति के बारे में सोचता तो कोई उनके बचे हुए सम्भावित दिनों के बारे में। अम्मा के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे सब। छोटे बेटे आदित्य ने तो यहां तक कह दिया, ‘अम्मा का इलाज अमरीका में कराएंगे। में आज ही उनके डॉक्यूमेंट्स के लिए अप्लाई कर दे रहा हूं।
मेहता जी को भी सात समंदर पार उम्मीद की लौ दिखाई पड़ी। पर अम्मा को तो जैसे कोई फिक्र ही नहीं थी। अपने कमरे में बैठी वह सबकी बातें सुनकर भी अनसुनी कर किसी गहन विचार में डूबी हुई थी। पर वह किस उधेड़बुन में लगी हैं- कोई नहीं जानता था।
मुंह लटकाए हुए बहू शिल्पी उनके कमरे में आई, ‘अम्मा बताइए आपको क्या खाने की इच्छा हो रही है। तभी बड़ा बेटा नरेंद्र भी रुंआसा हो अम्मा से पूछ बैठा, ‘अम्मा बोलो तुम्हें कहां घूमने का मन है।’ पीछे से मेहता जी भी बोल पड़े, ‘हां नरेंद्र की अम्मा बताओ कहां चलना है?’
अम्मा से सब ऐसे बोल रहे थे, जैसे वो दो-चार दिन की ही मेहमान हो। अम्मा ने पहले तो सबको घूर कर देखा फिर एकदम से झिड़कते हुए कहा, ‘तुम लोग भी न। ऐसे क्या पूछ रहे हो? कहीं नहीं जाऊंगी में। यहीं रहूंगी। और तुम सब जाओ अपना काम करो। मेरे पीछे पड़ने की जरूरत नहीं।’
अम्मा की बात सुनकर सबकी योजनाएं धराशाई हो गईं। फिर उसी शहर के अस्पताल से इलाज शुरू हुआ। एक दिन अम्मा ने बेटे से कहा, ‘आदित्य जरा अपनी गाड़ी तो निकाल।’ ‘किसलिए अम्मा!’ ‘अरे निकाल तो।’ आदित्य को कुछ समझ नहीं आया। पर उसे अम्मा से ज्यादा सवाल जवाब करते ठीक न लगा।
उसने झट गाड़ी निकाल ली। और अम्मा को बैठा चल पड़ा। फ्लाईओवर के नीचे स्थित नर्सरी के सामने उन्होंने गाड़ी रुकवा दी।
‘आओ बेटा। कुछ पौधे लेने थे।’
मां पौधों का क्या करोगी। अभी तुमको आराम की जरूरत है। बेटे ने हिचकते हुए कहा। तू चुपकर। सब आराम ही है। पहले घर के काम करके समय बीत जाता था। जबसे बीमारी आई है, बहू कुछ करने ही नहीं देती। अम्मा सोचा थोड़े पेड़ पौधे ही रोप दूं।’ ने समझाया।
अम्मा ने दो दर्जन पौधे खरीद लिए और वापस आ गईं। शाम तक उन्होंने सारे पौधे अपनी कॉलोनी के खाली पड़े मैदान और गलियों मे किनारे-किनारे रोप दिए। सब अम्मा की चिंता में घुले जा रहे थे, पर अम्मा को चिंता के लिए वक्त ही नहीं था।
वह सुबह-शाम बहुत व्यस्त रहने लगी थीं। सारे पौधों में खाद-पानी डालना। उनके नाजुक तनों को सहारा देना। उन्हें आवारा पशुओं से बचाना। बस यही सब करते सुबह से रात हो जाती।
उधर अम्मा के रोपे पौधे बढ़ रहे थे और इधर अम्मा का कैंसर पैर पसार रहा था। अम्मा की पीड़ा बढ़ती जा रही थी। पर वो किसी से कुछ न कहती। बस अपने लगाए पौधों के पास जाकर बैठ जाती। दवाइयों की ढेरी इकट्ठी हो चुकी थी। पर अम्मा को टाइम से दवाइयां खाने का भी होश न रहता।
सब अम्मा को समझाते, ‘पहले अपना खयाल कर लो, तब उन पौधों का करना। तुम जिंदा रही, तभी वो बचेंगे।’ ‘अपना ही तो खयाल कर रही हूं
बेटा। मैं नहीं भी बची, तो भी ये जरूर बचे रहेंगे।’ अम्मा कहती। डेढ़ साल बाद अम्मा चल बसीं। जब अम्मा की अर्थी गली से गुजरी तो उनके रोपे पौधे हिल-हिलकर जैसे उन्हें अंतिम प्रणाम कर रहे हों। पूरी कॉलोनी हरी भरी हो चुकी थी। नीम, शहतूत, कनेर, गुड़हल, कैथ, हरसिंगार और अमरूद के पेड़ों की छाया में अम्मा चली जा रही थी।
पेड़ों पर बैठी नन्ही चिरैया भी आज बिना रुके चीं-चीं कर रही थी। जैसे अम्मा को विदा दे रही हो। अम्मा का अंतिम संस्कार कर सब लौट आए। जीवन फिर उसी पुराने ढर्रे पर चलने लगा। पर अम्मा के जाने के बाद भी सब पेड़ों की छाया में बैठ अम्मा को याद करते। अम्मा ने सच ही कहा था, अपना ही तो खयाल कर रही हूं।
अम्मा खुद को इन पौधों में रोपकर पुनर्जीवित कर गई थीं।